Monday, November 29, 2010

मेरा आख़िरी पैग़ाम


चाहा था सनम के आंसू पोंछ दूं
जाते जाते मगर ये हो ना सका

इक काँधे की ज़रुरत थी मुझको भी
उसके काँधे सर रख मैं रो ना सका

अपनी जुदाई के गम बढे कुछ इतने
उसके दुःख अपने काँधे ढो ना सका

ज़माने का डर और घर की मजबूरी
जाते जाते मैं उसका हो ना सका

उसके आंसू पोछना चाहता था
खुद चाहते हुए भी रो ना सका

दूर जाके भी उसे दिल में रखूंगा कैसे
ये सोच सोच रातों को सो ना सका

Friday, January 8, 2010

मान लिया तुझे अब अपना ख़ुदा

ख़ुदा को कर दिया खुद से जुदा
मान लिया तुझे अब अपना ख़ुदा

मुझे ना रही ख़ुदा की ज़रुरत तब से
मेरा ख़ुदा तुझमें समा गया जब से

मेरी नैया की पतवार है अब तेरे हाथ में
डुबा दे अब या ले चल अपने साथ में

कभी कभी मुझे अपने ख़ुदा से डर सा लगता है
जब मेरा ख़ुदा दूसरों पर मेहरबान सा लगता है

दिल को समझाता हूँ पर दिल है के मानता ही नहीं
शायद मैं अपने ख़ुदा को ठीक से जानता ही नहीं

अंजाम कुछ भी हो मुझे कभी शिकायत ना होगी
ख़ुदा की शिकायत करने की तो कोई अदालत ना होगी

मेरी इबादत में कमी हो तो मुझे बता देना
खुद से अलग करके कभी ना सज़ा देना