Monday, November 29, 2010

मेरा आख़िरी पैग़ाम


चाहा था सनम के आंसू पोंछ दूं
जाते जाते मगर ये हो ना सका

इक काँधे की ज़रुरत थी मुझको भी
उसके काँधे सर रख मैं रो ना सका

अपनी जुदाई के गम बढे कुछ इतने
उसके दुःख अपने काँधे ढो ना सका

ज़माने का डर और घर की मजबूरी
जाते जाते मैं उसका हो ना सका

उसके आंसू पोछना चाहता था
खुद चाहते हुए भी रो ना सका

दूर जाके भी उसे दिल में रखूंगा कैसे
ये सोच सोच रातों को सो ना सका

3 comments:

  1. very well written! The sadness and helplessness conveyed beautifully! Thanx for sharing!

    ReplyDelete
  2. it is so beautiful that it brought tears inmy eyes

    ReplyDelete