कभी मिली फुर्सत तो सोचेंगे वो दिन कहाँ हवा हुए
जब छतें फांद कर
पतंगें थे लूटा करते
कंचे चटकाते और
गुल्ली डंडा भी खेलते
और शाम को यारों के संग
खोमचे पे चाट खाया करते थे
गोल गप्पे का खट्टा पानी
मुंह से लार सी टपक जाती थी
दही बढे पर मीठी चटनी
डालते ही कैसे छिटक जाती थी
आइस क्रीम गिरा कर कमीज़ पर
शाम को माँ की डांट खाया करते थे
साइकल पर गलियों के
चक्कर लगा कर
डंडे पे अपने
यार को बिठा कर
कभी तलैया किनारे और
कभी यार के घर जाया करते थे
होम वर्क का बहाना बना कर
पिक्चर देखने का वो मज़ा
पकड़े गए तो पिताजी से
मिलती थी रात को सज़ा
स्कूल जाने का कह कर
मेला देखने निकल जाया करते थे
कालेज कि कैंटीन में
लड़कियों से गप्पें लडाना
कभी उनके पैसों से उन्हें ही
चाय, समोसा खिलाना
कभी जेब जो खाली होती थी तो
कैंटीन वाले को पटाया करते थे
नौकरी की तलाश में
जूतों का घिस जाना
मोटर साइकिल में पेट्रोल नहीं
आज पैदल पड़ेगा जाना
इतनी फुरसत होती थी के
दोपहर को खाना खाने घर पे आया करते थे
शादी के बाद हनीमून का
एक तेज गाड़ी के स्टेशन सा गुज़र जाना
बच्चों का लग गया तांता
कैसे ये कभी ना जाना
बच्चों को उंगली पकड़ा कर
दूर दूर तक घुमाया करते थे
अब इस बड़े से शहर में अपनी जवानी
और बच्चों का बचपन जाने कहाँ खो गया
दौड़ भाग कि जिंदगी में
उम्मीदों का सपना खुद ही सो गया
अब वो दिन हवा हुए
जब बन्ने मियाँ फाख्ता उड़ाया करते थे
कभी मिली फुरसत तो सोचेंगे
पर अभी मिला नहीं है वक़्त
शायद अब मरने पर ही
मिल सकेगी ये कम्बख़त
फुरसत................