Tuesday, July 7, 2009

वो दिन कहाँ हवा हुए

कभी मिली फुर्सत तो सोचेंगे
वो दिन कहाँ हवा हुए
जब छतें फांद कर
पतंगें थे लूटा करते
कंचे चटकाते और
गुल्ली डंडा भी खेलते
और शाम को यारों के संग
खोमचे पे चाट खाया करते थे

गोल गप्पे का खट्टा पानी
मुंह से लार सी टपक जाती थी
दही बढे पर मीठी चटनी
डालते ही कैसे छिटक जाती थी
आइस क्रीम गिरा कर कमीज़ पर
शाम को माँ की डांट खाया करते थे

साइकल पर गलियों के
चक्कर लगा कर
डंडे पे अपने
यार को बिठा कर
कभी तलैया किनारे और
कभी यार के घर जाया करते थे

होम वर्क का बहाना बना कर
पिक्चर देखने का वो मज़ा
पकड़े गए तो पिताजी से
मिलती थी रात को सज़ा
स्कूल जाने का कह कर
मेला देखने निकल जाया करते थे

कालेज कि कैंटीन में
लड़कियों से गप्पें लडाना
कभी उनके पैसों से उन्हें ही
चाय, समोसा खिलाना
कभी जेब जो खाली होती थी तो
कैंटीन वाले को पटाया करते थे

नौकरी की तलाश में
जूतों का घिस जाना
मोटर साइकिल में पेट्रोल नहीं
आज पैदल पड़ेगा जाना
इतनी फुरसत होती थी के
दोपहर को खाना खाने घर पे आया करते थे

शादी के बाद हनीमून का
एक तेज गाड़ी के स्टेशन सा गुज़र जाना
बच्चों का लग गया तांता
कैसे ये कभी ना जाना
बच्चों को उंगली पकड़ा कर
दूर दूर तक घुमाया करते थे

अब इस बड़े से शहर में अपनी जवानी
और बच्चों का बचपन जाने कहाँ खो गया
दौड़ भाग कि जिंदगी में
उम्मीदों का सपना खुद ही सो गया
अब वो दिन हवा हुए
जब बन्ने मियाँ फाख्ता उड़ाया करते थे

कभी मिली फुरसत तो सोचेंगे
पर अभी मिला नहीं है वक़्त
शायद अब मरने पर ही
मिल सकेगी ये कम्बख़त
फुरसत................

5 comments:

  1. आपने तो मेरे बचपन के दिन याद दिला दिया.
    बहुत सुन्दर रचना

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  2. Green Memories Of old & peaceful life...Nice...

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  3. bachpan ke dinno ko kabhi dil se na juda karna
    jub jub yaad in ki aaae
    in ko jee bhar ke jee lena

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